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User:MADAN LAL KATARIYA

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अलाउद्दीन खिलजी अभियान विकिपीडिया

था प्रह्लाद सिंह को उनकी वीरता के कारण ही डूंगर सिंह नाम से भी जाना जाता है| प्रह्लाद सिंह के चार पुत्र थे| 1 सहजना (बड़ा पुत्र जो बाद में राजा बना ) 2 तसिगा (सिंगा ) 3 आशा (नैनू ) 4 पुन्ना (महता ) गैंदा सिंह की मृत्यु सौंख (सौनक) दुर्ग के युद्ध में होने के बाद प्रह्लाद सिंह ने अपने बड़े पुत्र सहजना के कहने पर गैंदासिंह के पुत्र आजल को गोद ले लिया इस तरह पांच पुत्र प्रह्लाद सिंह के हुए इस युद्ध के बाद कुछ लोग सौंख स जाकर निमाड़ में बसे यहां से मालेगांव और जलगांव में आबाद हुए यह लोग वर्तमान में जगताप कहलाते हैं। यह गोत की जगह देवक को मानते हैं।

मालवा विजय संपादित करें मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1291 में जब कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण करने की योजना बनाई तो राजा महलक देव ने राजा ऊदय सिंह से सहायता मांगी। ऊदय सिंह ने अपने मंत्री विभूति पाठक से योजना बनाकर सहायता करने का वचन दिया मालवा के मंत्री हरनंद ( कोका ) को ऊदय सिंह ने संदेश भेजा और अपने राजगोंड सेना को लेकर धसान नदी के किनारे डेरा डाल दिया। वर्षा काल का समय था, अलाउद्दीन खिलजी की सेना जैसे ही नदी पार करने लगी तभी गोंडी सेना ने छापामार युद्ध शैली में जहरीले तीरों, अग्निबाण और लुकेत सांपों के बाणों से हमला बोल दिया। हमले से अलाउद्दीन खिलजी की सेना में खलबली मच गई। उसकी नावें डुबो दी गई और उसके शस्त्रागार में आग लगा दी गई, कुछ ही घंटों में अलाउद्दीन खिलजी की सेना पराजित हो गई। मालवा नरेश महालक्ष देव ने राजा ऊदय सिंह मरावी के प्रति आभार व्यक्त किया।

परंतु 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक बार फिर सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।

जालौर संपादित करें जालौर के शासक कान्हणदेव ने 1304 ई. में अलाउद्दीन की अधीनता को स्वीकार कर लिया था, पर धीरे-धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया। 1311 ई. में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सुल्तान की सेना ने कान्हणदेव को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार जालौर पर अधिकार के साथ ही अलाउद्दीन की राजस्थान विजय का कठिन कार्य पूरा हुआ। 1311 ई. तक उत्तर भारत में सिर्फ़ नेपाल, कश्मीर एवं असम ही ऐसे भाग बचे थे, जिन पर अलाउद्दीन अधिकार नहीं कर सका था। उत्तर भारत की विजय के बाद अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत की ओर अपना रुख किया। कान्हड्देव प्रबन्ध के अनुसार कान्हड्देव के पुत्र वीरम देव का प्रेम अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा से था जो इस आक्रमण का मुख्य कारण था

दक्षिण विजय संपादित करें अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-

देवगिरि के यादव दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और द्वारसमुद्र के होयसल अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफ़ूर’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था।

देवगिरि संपादित करें शासक बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव (सिंहन देव) के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः नाइब मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना को देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजा गया। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी, जो कमला देवी एवं कर्ण की पुत्री थी, को दिल्ली भेज दिया, जहाँ पर उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।

तेलंगाना संपादित करें तेलंगाना में काकतीय वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली।

होयसल संपादित करें होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली।उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की।

मृत्यु संपादित करें जलोदर रोग से ग्रस्त अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपना अन्तिम समय अत्यन्त कठिनाईयों में व्यतीत किया और 5 जनवरी 1316 ई. को इनकी मृत्यु हो गई। यह भी कहा जाता है कि अंतिम समय में अलाउद्दीन खिलजी को एक त्वचा रोग (कोढ़) हो गया था जिसके कारण वह बहुत परेशान रहने लगा, अलाउद्दीन का मकबरा क़ुतुब मीनार के परिसर में ही स्थित है।[12]